Wednesday, 23 May 2018

श्री विष्णु अष्टोत्तरशतनामावलिः॥

श्री विष्णु अष्टोत्तरशतनामावलिः॥


ॐ विष्णवे नमः ।
ॐ लक्ष्मीपतये नमः ।
ॐ कृष्णाय नमः ।
ॐ वैकुण्ठाय नमः ।
ॐ गरुडध्वजाय नमः ।
ॐ परब्रह्मणे नमः ।
ॐ जगन्नाथाय नमः ।
ॐ वासुदेवाय नमः ।
ॐ त्रिविक्रमाय नमः ।
ॐ दैत्यान्तकाय नमः ।
ॐ मधुरिपवे नमः ।
ॐ तार्क्ष्यवाहनाय नमः ।
ॐ सनातनाय नमः ।
ॐ नारायणाय नमः ।
ॐ पद्मनाभाय नमः ।
ॐ हृषीकेशाय नमः ।
ॐ सुधाप्रदाय नमः ।
ॐ माधवाय नमः ।
ॐ पुण्डरीकाक्षाय नमः ।


ॐ स्थितिकर्त्रे नमः ।
ॐ परात्पराय नमः ।
ॐ वनमालिने नमः ।
ॐ यज्ञरूपाय नमः ।
ॐ चक्रपाणये नमः ।
ॐ गदाधराय नमः ।
ॐ उपेन्द्राय नमः ।
ॐ केशवाय नमः ।
ॐ हंसाय नमः ।
ॐ समुद्रमथनाय नमः ।
ॐ हरये नमः ।
ॐ गोविन्दाय नमः ।
ॐ ब्रह्मजनकाय नमः ।
ॐ कैटभासुरमर्दनाय नमः ।
ॐ श्रीधराय नमः ।
ॐ कामजनकाय नमः ।
ॐ शेषशायिने नमः ।
ॐ चतुर्भुजाय नमः ।
ॐ पाञ्चजन्यधराय नमः ।

ॐ श्रीमते नमः ।
ॐ शार्ङ्गपाणये नमः ।
ॐ जनार्दनाय नमः ।
ॐ पीताम्बरधराय नमः ।
ॐ देवाय नमः ।
ॐ सूर्यचन्द्रविलोचनाय नमः ।
ॐ मत्स्यरूपाय नमः ।
ॐ कूर्मतनवे नमः ।
ॐ क्रोडरूपाय नमः ।
ॐ नृकेसरिणे नमः ।
ॐ वामनाय नमः ।
ॐ भार्गवाय नमः ।
ॐ रामाय नमः ।
ॐ बलिने नमः ।
ॐ कल्किने नमः ।
ॐ हयाननाय नमः ।
ॐ विश्वम्भराय नमः ।
ॐ शिशुमाराय नमः ।
ॐ श्रीकराय नमः ।
ॐ कपिलाय नमः ।
ॐ ध्रुवाय नमः ।


ॐ दत्तत्रेयाय नमः ।
ॐ अच्युताय नमः ।
ॐ अनन्ताय नमः ।
ॐ मुकुन्दाय नमः ।
ॐ दधिवामनाय नमः ।
ॐ धन्वन्तरये नमः ।
ॐ श्रीनिवासाय नमः ।
ॐ प्रद्युम्नाय नमः ।
ॐ पुरुषोत्तमाय नमः ।
ॐ श्रीवत्सकौस्तुभधराय नमः ।
ॐ मुरारातये नमः ।
ॐ अधोक्षजाय नमः ।
ॐ ऋषभाय नमः ।
ॐ मोहिनीरूपधारिणे नमः ।
ॐ सङ्कर्षणाय नमः ।
ॐ पृथवे नमः ।
ॐ क्षीराब्धिशायिने नमः ।

ॐ भूतात्मने नमः ।
ॐ अनिरुद्धाय नमः ।
ॐ भक्तवत्सलाय नमः ।
ॐ नराय नमः ।
ॐ गजेन्द्रवरदाय नमः ।
ॐ त्रिधाम्ने नमः ।
ॐ भूतभावनाय नमः ।
ॐ श्वेतद्वीपसुवास्तव्याय नमः ।
ॐ सनकादिमुनिध्येयाय नमः ।
ॐ भगवते नमः ।
ॐ शङ्करप्रियाय नमः ।
ॐ नीलकान्ताय नमः ।
ॐ धराकान्ताय नमः ।
ॐ वेदात्मने नमः ।
ॐ बादरायणाय नमः ।
ॐ भागीरथीजन्मभूमिपादपद्माय नमः ।

ॐ सतां प्रभवे नमः ।
ॐ स्वभुवे नमः ।
ॐ विभवे नमः ।
ॐ घनश्यामाय नमः ।
ॐ जगत्कारणाय नमः ।
ॐ अव्ययाय नमः ।
ॐ बुद्धावताराय नमः ।
ॐ शान्तात्मने नमः ।
ॐ लीलामानुषविग्रहाय नमः ।
ॐ दामोदराय नमः ।
ॐ विराड्रूपाय नमः ।
ॐ भूतभव्यभवत्प्रभवे नमः ।
ॐ आदिदेवाय नमः ।
ॐ देवदेवाय नमः ।
ॐ प्रह्लादपरिपालकाय नमः ।
ॐ श्रीमहाविष्णवे नमः ।

॥ इति श्री महाविष्ण्वष्टोत्तरशतनामवलिः समाप्ता: ॥

अथ श्री नारायण कवचम् अर्थ सहितम् ।।

अथ श्री नारायण कवचम् अर्थ सहितम् ।।


अथ श्री नारायण कवचम् अर्थ सहितम् ।। Shri Narayan Kavacham – Arth Sahitam.
ॐ हरिर्विदध्यान्मम सर्वरक्षां न्यस्ताड़् घ्रिपद्मः पतगेन्द्रपृष्ठे ।
दरारिचर्मासिगदेषुचापपाशान् दधानोsष्टगुणोsष्टबाहुः ।।१।।


अर्थ:- भगवान् श्रीहरि गरूड़जी के पीठ पर अपने चरणकमल रखे हुए हैं, अणिमा आदि आठों सिद्धियाँ उनकी सेवा कर रही हैं आठ हाँथों में शंख, चक्र, ढाल, तलवार, गदा, बाण, धनुष, और पाश (फंदा) धारण किए हुए हैं वे ही ओंकार स्वरूप प्रभु सब प्रकार से सब ओर से मेरी रक्षा करें।।१।।

जलेषु मां रक्षतु मत्स्यमूर्तिर्यादोगणेभ्यो वरूणस्य पाशात् ।
स्थलेषु मायावटुवामनोsव्यात् त्रिविक्रमः खेऽवतु विश्वरूपः ।।२।।

अर्थ:- मत्स्यमूर्ति भगवान् जल के भीतर जलजंतुओं से और वरूण के पाश से मेरी रक्षा करें माया से ब्रह्मचारी रूप धारण करने वाले वामन भगवान् स्थल पर और विश्वरूप श्री त्रिविक्रमभगवान् आकाश में मेरी रक्षा करें ।।२।।

दुर्गेष्वटव्याजिमुखादिषु प्रभुः पायान्नृसिंहोऽसुरयुथपारिः ।
विमुञ्चतो यस्य महाट्टहासं दिशो विनेदुर्न्यपतंश्च गर्भाः ।।३।।

अर्थ:- जिनके घोर अट्टहास करने पर सब दिशाएँ गूँज उठी थीं और गर्भवती दैत्यपत्नियों के गर्भ गिर गये थे, वे दैत्ययुथपतियों के शत्रु भगवान् नृसिंह किले, जंगल, रणभूमि आदि विकट स्थानों में मेरी रक्षा करें ।।३।।

रक्षत्वसौ माध्वनि यज्ञकल्पः स्वदंष्ट्रयोन्नीतधरो वराहः ।
रामोऽद्रिकूटेष्वथ विप्रवासे सलक्ष्मणोsव्याद् भरताग्रजोsस्मान् ।।४।।

अर्थ:- अपनी दाढ़ों पर पृथ्वी को उठा लेने वाले यज्ञमूर्ति वराह भगवान् मार्ग में, परशुराम जी पर्वतों के शिखरों और लक्ष्मणजी के सहित भरत के बड़े भाई भगावन् रामचंद्र प्रवास के समय मेरी रक्षा करें ।।४।।

मामुग्रधर्मादखिलात् प्रमादान्नारायणः पातु नरश्च हासात् ।
दत्तस्त्वयोगादथ योगनाथः पायाद् गुणेशः कपिलः कर्मबन्धात् ।।५।।

अर्थ:- भगवान् नारायण मारण-मोहन आदि भयंकर अभिचारों और सब प्रकार के प्रमादों से मेरी रक्षा करें ऋषिश्रेष्ठ नर गर्व से, योगेश्वर भगवान् दत्तात्रेय योग के विघ्नों से और त्रिगुणाधिपति भगवान् कपिल कर्मबन्धन से मेरी रक्षा करें ।।५।।

सनत्कुमारोऽवतु कामदेवाद्धयशीर्षा मां पथि देवहेलनात् ।
देवर्षिवर्यः पुरूषार्चनान्तरात् कूर्मो हरिर्मां निरयादशेषात् ।।६।।

अर्थ:- परमर्षि सनत्कुमार कामदेव से, हयग्रीव भगवान् मार्ग में चलते समय देवमूर्तियों को नमस्कार आदि न करने के अपराध से, देवर्षि नारद सेवापराधों से और भगवान् कच्छप सब प्रकार के नरकों से मेरी रक्षा करें ।।६।।

धन्वन्तरिर्भगवान् पात्वपथ्याद् द्वन्द्वाद् भयादृषभो निर्जितात्मा ।
यज्ञश्च लोकादवताज्जनान्ताद् बलो गणात् क्रोधवशादहीन्द्रः ।।७।।

अर्थ:- भगवान् धन्वन्तरि कुपथ्य से, जितेन्द्र भगवान् ऋषभदेव सुख-दुःख आदि भयदायक द्वन्द्वों से, यज्ञ भगवान् लोकापवाद से, बलरामजी मनुष्यकृत कष्टों से और श्रीशेषजी क्रोधवशनामक सर्पों के गणों से मेरी रक्षा करें ।।७।।

द्वैपायनो भगवानप्रबोधाद् बुद्धस्तु पाखण्डगणात् प्रमादात् ।
कल्किः कलेः कालमलात् प्रपातु धर्मावनायोरूकृतावतारः ।।८।।

अर्थ:- भगवान् श्रीकृष्णद्वेपायन व्यासजी अज्ञान से तथा बुद्धदेव पाखण्डियों से और प्रमाद से मेरी रक्षा करें धर्म-रक्षा करने वाले महान अवतार धारण करने वाले भगवान् कल्कि पाप-बहुल कलिकाल के दोषों से मेरी रक्षा करें ।।८।।

मां केशवो गदया प्रातरव्याद् गोविन्द आसंगवमात्तवेणुः ।
नारायण प्राह्ण उदात्तशक्तिर्मध्यन्दिने विष्णुररीन्द्रपाणिः ।।९।।

अर्थ:- प्रातःकाल भगवान् केशव अपनी गदा लेकर, कुछ दिन चढ़ जाने पर भगवान् गोविन्द अपनी बांसुरी लेकर, दोपहर के पहले भगवान् नारायण अपनी तीक्ष्ण शक्ति लेकर और दोपहर को भगवान् विष्णु चक्रराज सुदर्शन लेकर मेरी रक्षा करें ।।९।।

देवोsपराह्णे मधुहोग्रधन्वा सायं त्रिधामावतु माधवो माम् ।
दोषे हृषीकेश उतार्धरात्रे निशीथ एकोsवतु पद्मनाभः ।।१०।।

अर्थ:- तीसरे पहर में भगवान् मधुसूदन अपना प्रचण्ड धनुष लेकर मेरी रक्षा करें सांयकाल में ब्रह्मा आदि त्रिमूर्तिधारी माधव, सूर्यास्त के बाद हृषिकेश, अर्धरात्रि के पूर्व तथा अर्ध रात्रि के समय अकेले भगवान् पद्मनाभ मेरी रक्षा करें ।।१०।।

श्रीवत्सधामापररात्र ईशः प्रत्यूष ईशोऽसिधरो जनार्दनः ।
दामोदरोऽव्यादनुसन्ध्यं प्रभाते विश्वेश्वरो भगवान् कालमूर्तिः ।।११।।

अर्थ:- रात्रि के पिछले प्रहर में श्रीवत्सलाञ्छन श्रीहरि, उषाकाल में खड्गधारी भगवान् जनार्दन, सूर्योदय से पूर्व श्रीदामोदर और सम्पूर्ण सन्ध्याओं में कालमूर्ति भगवान् विश्वेश्वर मेरी रक्षा करें ।।११।।

अर्थ:- रात्रि के पिछले प्रहर में श्रीवत्सलाञ्छन श्रीहरि, उषाकाल में खड्गधारी भगवान् जनार्दन, सूर्योदय से पूर्व श्रीदामोदर और सम्पूर्ण सन्ध्याओं में कालमूर्ति भगवान् विश्वेश्वर मेरी रक्षा करें ।।११।।

चक्रं युगान्तानलतिग्मनेमि भ्रमत् समन्ताद् भगवत्प्रयुक्तम् ।
दन्दग्धि दन्दग्ध्यरिसैन्यमासु कक्षं यथा वातसखो हुताशः ।।१२।।

अर्थ:- सुदर्शन ! आपका आकार चक्र ( रथ के पहिये ) की तरह है आपके किनारे का भाग प्रलयकालीन अग्नि के समान अत्यन्त तीव्र है। आप भगवान् की प्रेरणा से सब ओर घूमते रहते हैं जैसे आग वायु की सहायता से सूखे घास-फूस को जला डालती है, वैसे ही आप हमारी शत्रुसेना को शीघ्र से शीघ्र जला दीजिये, जला दीजिये ।।१२।।

गदेऽशनिस्पर्शनविस्फुलिङ्गे निष्पिण्ढि निष्पिण्ढ्यजितप्रियासि ।
कूष्माण्डवैनायकयक्षरक्षोभूतग्रहांश्चूर्णय चूर्णयारीन् ।।१३।।

अर्थ:- कौमुद की गदा ! आपसे छूटने वाली चिनगारियों का स्पर्श वज्र के समान असह्य है आप भगवान् अजित की प्रिया हैं और मैं उनका सेवक हूँ इसलिए आप कूष्माण्ड, विनायक, यक्ष, राक्षस, भूत और प्रेतादि ग्रहों को अभी कुचल डालिये, कुचल डालिये तथा मेरे शत्रुओं को चूर-चूर कर दिजिये ।।१३।।

त्वं यातुधानप्रमथप्रेतमातृपिशाचविप्रग्रहघोरदृष्टीन् ।
दरेन्द्र विद्रावय कृष्णपूरितो भीमस्वनोऽरेर्हृदयानि कम्पयन् ।।१४।।

अर्थ:- शङ्खश्रेष्ठ ! आप भगवान् श्रीकृष्ण के फूँकने से भयंकर शब्द करके मेरे शत्रुओं का दिल दहला दीजिये एवं यातुधान, प्रमथ, प्रेत, मातृका, पिशाच तथा ब्रह्मराक्षस आदि भयावने प्राणियों को यहाँ से तुरन्त भगा दीजिये ।।१४।।

त्वं तिग्मधारासिवरारिसैन्यमीशप्रयुक्तो मम छिन्धि छिन्धि ।
चक्षूंषि चर्मञ्छतचन्द्र छादय द्विषामघोनां हर पापचक्षुषाम् ।।१५।।

अर्थ:- भगवान् की श्रेष्ठ तलवार ! आपकी धार बहुत तीक्ष्ण है आप भगवान् की प्रेरणा से मेरे शत्रुओं को छिन्न-भिन्न कर दिजिये। भगवान् की प्यारी ढाल ! आपमें सैकड़ों चन्द्राकार मण्डल हैं आप पापदृष्टि पापात्मा शत्रुओं की आँखे बन्द कर दिजिये और उन्हें सदा के लिये अन्धा बना दीजिये ।।१५।।


यन्नो भयं ग्रहेभ्योऽभूत् केतुभ्यो नृभ्य एव च ।
सरीसृपेभ्यो दंष्ट्रिभ्यो भूतेभ्योंऽहोभ्य एव वा ।।१६।।
सर्वाण्येतानि भगवन्नामरूपास्त्रकीर्तनात् ।
प्रयान्तु संक्षयं सद्यो ये नः श्रेयः प्रतीपकाः ।।१६।।

अर्थ:- सूर्य आदि ग्रह, धूमकेतु (पुच्छल तारे ) आदि केतु, दुष्ट मनुष्य, सर्पादि रेंगने वाले जन्तु, दाढ़ोंवाले हिंसक पशु, भूत-प्रेत आदि तथा पापी प्राणियों से हमें जो-जो भय हो और जो हमारे मङ्गल के विरोधी हों – वे सभी भगावान् के नाम, रूप तथा आयुधों का कीर्तन करने से तत्काल नष्ट हो जायें ।।१६-१७।।

गरूड़ो भगवान् स्तोत्रस्तोभश्छन्दोमयः प्रभुः ।
रक्षत्वशेषकृच्छ्रेभ्यो विष्वक्सेनः स्वनामभिः ।।१८।।

अर्थ:- बृहद्, रथन्तर आदि सामवेदीय स्तोत्रों से जिनकी स्तुति की जाती है, वे वेदमूर्ति भगवान् गरूड़ और विष्वक्सेनजी अपने नामोच्चारण के प्रभाव से हमें सब प्रकार की विपत्तियों से बचायें।।१८।।

सर्वापद्भ्यो हरेर्नामरूपयानायुधानि नः ।
बुद्धीन्द्रियमनः प्राणान् पान्तु पार्षदभूषणाः ।।१९।।

अर्थ:- श्रीहरि के नाम, रूप, वाहन, आयुध और श्रेष्ठ पार्षद हमारी बुद्धि , इन्द्रिय , मन और प्राणों को सब प्रकार की आपत्तियों से बचायें ।।१९।।

यथा हि भगवानेव वस्तुतः सदसच्च यत् ।
सत्येनानेन नः सर्वे यान्तु नाशमुपद्रवाः ।।२०।।

अर्थ:- जितना भी कार्य अथवा कारण रूप जगत है, वह वास्तव में भगवान् ही है इस सत्य के प्रभाव से हमारे सारे उपद्रव नष्ट हो जायें ।।२०।।

यथैकात्म्यानुभावानां विकल्परहितः स्वयम् ।
भूषणायुद्धलिङ्गाख्या धत्ते शक्तीः स्वमायया ।।२१।।
तेनैव सत्यमानेन सर्वज्ञो भगवान् हरिः ।
पातु सर्वैः स्वरूपैर्नः सदा सर्वत्र सर्वगः ।।२२।।

अर्थ:- जो लोग ब्रह्म और आत्मा की एकता का अनुभव कर चुके हैं, उनकी दृष्टि में भगवान् का स्वरूप समस्त विकल्पों से रहित है-भेदों से रहित हैं फिर भी वे अपनी माया शक्ति के द्वारा भूषण, आयुध और रूप नामक शक्तियों को धारण करते हैं यह बात निश्चित रूप से सत्य है इस कारण सर्वज्ञ, सर्वव्यापक भगवान् श्रीहरि सदा -सर्वत्र सब स्वरूपों से हमारी रक्षा करें ।।२१-२२।।

विदिक्षु दिक्षूर्ध्वमधः समन्तादन्तर्बहिर्भगवान् नारसिंहः।
प्रहापयँल्लोकभयं स्वनेन स्वतेजसा ग्रस्तसमस्ततेजाः ।।२३।।

अर्थ:- जो अपने भयंकर अट्टहास से सब लोगों के भय को भगा देते हैं और अपने तेज से सबका तेज ग्रस लेते हैं, वे भगवान् नृसिंह दिशा -विदिशा में, नीचे -ऊपर, बाहर-भीतर – सब ओर से हमारी रक्षा करें ।।२३।।

मघवन्निदमाख्यातं वर्म नारयणात्मकम् ।
विजेष्यस्यञ्जसा येन दंशितोऽसुरयूथपान् ।।२४।।

अर्थ:- देवराज इन्द्र ! मैने तुम्हें यह नारायण कवच सुना दिया है इस कवच से तुम अपने को सुरक्षित कर लो बस, फिर तुम अनायास ही सब दैत्य – यूथपतियों को जीत कर लोगे ।।२४।।

एतद् धारयमाणस्तु यं यं पश्यति चक्षुषा ।
पदा वा संस्पृशेत् सद्यः साध्वसात् स विमुच्यते ।।२५।।

अर्थ:- इस नारायण कवच को धारण करने वाला पुरूष जिसको भी अपने नेत्रों से देख लेता है अथवा पैर से छू देता है, तत्काल समस्त भयों से से मुक्त हो जाता है ।।२५।।

न कुतश्चित भयं तस्य विद्यां धारयतो भवेत् ।
राजदस्युग्रहादिभ्यो व्याघ्रादिभ्यश्च कर्हिचित् ।।२६।।

अर्थ:- जो इस वैष्णवी विद्या को धारण कर लेता है, उसे राजा, डाकू, प्रेत, पिशाच आदि और बाघ आदि हिंसक जीवों से कभी किसी प्रकार का भय नहीं होता ।।२६।।

इमां विद्यां पुरा कश्चित् कौशिको धारयन् द्विजः ।
योगधारणया स्वाङ्गं जहौ स मरूधन्वनि ।।२७।।

अर्थ:- देवराज ! प्राचीनकाल की बात है, एक कौशिक गोत्री ब्राह्मण ने इस विद्या को धारण करके योगधारणा से अपना शरीर मरूभूमि में त्याग दिया ।।२७।।

तस्योपरि विमानेन गन्धर्वपतिरेकदा ।
ययौ चित्ररथः स्त्रीभिर्वृतो यत्र द्विजक्षयः ।।२८।।

अर्थ:- जहाँ उस ब्राह्मण का शरीर पड़ा था, उसके उपर से एक दिन गन्धर्वराज चित्ररथ अपनी स्त्रियों के साथ विमान पर बैठ कर निकले ।।२८।।

गगनान्न्यपतत् सद्यः सविमानो ह्यवाक् शिराः ।
स वालखिल्यवचनादस्थीन्यादाय विस्मितः ।
प्रास्य प्राचीसरस्वत्यां स्नात्वा धाम स्वमन्वगात् ।।२९।।

अर्थ:- वहाँ आते ही वे नीचे की ओर सिर किये विमान सहित आकाश से पृथ्वी पर गिर पड़े इस घटना से उनके आश्चर्य की सीमा न रही जब उन्हें बालखिल्य मुनियों ने बतलाया कि यह नारायण कवच धारण करने का प्रभाव है, तब उन्होंने उस ब्राह्मण देव की हड्डियों को ले जाकर पूर्ववाहिनी सरस्वती नदी में प्रवाहित कर दिया और फिर स्नान करके वे अपने लोक को चले गये ।।२९।।

।। श्रीशुक उवाच ।।
य इदं शृणुयात् काले यो धारयति चादृतः ।
तं नमस्यन्ति भूतानि मुच्यते सर्वतो भयात् ।।३०।।

अर्थ:- श्रीशुकदेवजी कहते हैं – परिक्षित् जो पुरूष इस नारायण कवच को समय पर सुनता है और जो आदर पूर्वक इसे धारण करता है, उसके सामने सभी प्राणी आदर से झुक जाते हैं और वह सब प्रकार के भयों से मुक्त हो जाता है ।।३०।।

एतां विद्यामधिगतो विश्वरूपाच्छतक्रतुः ।
त्रैलोक्यलक्ष्मीं बुभुजे विनिर्जित्य मृधेऽसुरान् ।।३१।।

अर्थ:- परीक्षित् ! शतक्रतु इन्द्र ने आचार्य विश्वरूपजी से यह वैष्णवी विद्या प्राप्त करके रणभूमि में असुरों को जीत लिया और वे त्रैलोक्यलक्ष्मी का उपभोग करने लगे ।।३१।।

।। इति श्रीनारायणकवचं सम्पूर्णम् ।। (श्रीमद्भागवत स्कन्ध-6, अ०-8)