Friday, 28 October 2016

दीवाली पर इनके करे 21 पाठ

श्री महालक्ष्मी अष्टकम

नमस्तेस्तु महामाये श्री पीठे सुर पूजिते !

शंख चक्र गदा हस्ते महालक्ष्मी नमोस्तुते !!

नमस्तेतु गरुदारुढै कोलासुर भयंकरी !

सर्वपाप हरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तुते !!

सर्वज्ञे सर्व वरदे सर्व दुष्ट भयंकरी !

सर्वदुख हरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तुते !!

सिद्धि बुद्धि प्रदे देवी भक्ति मुक्ति प्रदायनी !

मंत्र मुर्ते सदा देवी महालक्ष्मी नमोस्तुते !!

आध्यंतरहीते देवी आद्य शक्ति महेश्वरी !

योगजे योग सम्भुते महालक्ष्मी नमोस्तुते !!

स्थूल सुक्ष्मे महारोद्रे महाशक्ति महोदरे !

महापाप हरे देवी महालक्ष्मी नमोस्तुते !!

पद्मासन स्थिते देवी परब्रह्म स्वरूपिणी !

परमेशी जगत माता महालक्ष्मी नमोस्तुते !!

श्वेताम्भर धरे देवी नानालन्कार भुषिते !

जगत स्थिते जगंमाते महालक्ष्मी नमोस्तुते!!

महालक्ष्मी अष्टक स्तोत्रं य: पठेत भक्तिमान्नर:!

सर्वसिद्धि मवाप्नोती राज्यम् प्राप्नोति सर्वदा !!

एक कालम पठेनित्यम महापापविनाशनम !

द्विकालम य: पठेनित्यम धनधान्यम समन्वित: !!

त्रिकालम य: पठेनित्यम महाशत्रुविनाषम !

महालक्ष्मी भवेनित्यम प्रसंनाम वरदाम शुभाम !!

दारिद्र्यदहनशिवस्तोत्रं||

दारिद्र्य दहन शिवस्तोत्रं

||विश्वेश्वराय नरकार्णव तारणाय कणामृताय शशिशेखरधारणाय |कर्पूरकान्तिधवलाय जटाधराय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || १||

गौरीप्रियाय रजनीशकलाधराय कालान्तकाय भुजगाधिपकङ्कणाय |गंगाधराय गजराजविमर्दनाय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || २||

भक्तिप्रियाय भवरोगभयापहाय उग्राय दुर्गभवसागरतारणाय |ज्योतिर्मयाय गुणनामसुनृत्यकाय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || ३||

चर्मम्बराय शवभस्मविलेपनाय भालेक्षणाय मणिकुण्डलमण्डिताय |मंझीरपादयुगलाय जटाधराय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || ४||

पञ्चाननाय फणिराजविभूषणाय हेमांशुकाय भुवनत्रयमण्डिताय |आनन्दभूमिवरदाय तमोमयाय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || ५||

भानुप्रियाय भवसागरतारणाय कालान्तकाय कमलासनपूजिताय |नेत्रत्रयाय शुभलक्षण लक्षिताय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || ६||

रामप्रियाय रघुनाथवरप्रदाय नागप्रियाय नरकार्णवतारणाय |पुण्येषु पुण्यभरिताय सुरार्चिताय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || ७||

मुक्तेश्वराय फलदाय गणेश्वराय गीतप्रियाय वृषभेश्वरवाहनाय |मातङ्गचर्मवसनाय महेश्वराय दारिद्र्य दुःखदहनाय नमः शिवाय || ८||

वसिष्ठेन कृतं स्तोत्रं सर्वरोगनिवारणं |सर्वसंपत्करं शीघ्रं पुत्रपौत्रादिवर्धनम् |त्रिसंध्यं यः पठेन्नित्यं स हि स्वर्गमवाप्नुयात् || ९||||

इति श्रीवसिष्ठविरचितं दारिद्र्यदहनशिवस्तोत्रं सम्पूर्णम् ||

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लक्ष्मीजी की बडी बहन दरीद्रा (ज्येष्ठा) का निवास एवं कथा :--
कार्तिकमास की द्वादशी तिथि को पिता समुद्र ने दरिद्रादेवी का कन्यादान कर दिया। विवाह के बाद दु:सह ऋषि जब दरिद्रा को लेकर अपने आश्रम पर आए तो उनके आश्रम में वेदमन्त्र गुंजायमान हो रहे थे। वहां से ज्येष्ठा दोनों कान बंद कर भागने लगी। यह देखकर दु:सह मुनि उद्विग्न हो गये क्योंकि उन दिनों सब जगह धर्म की चर्चा और पुण्यकार्य हुआ करते थे। सब जगह वेदमन्त्रों और भगवान के गुणगान से बचकर भागते-भागते दरिद्रा थक गई। तब दरिद्रा ने मुनि से कहा–’जहां वेदध्वनि, अतिथि-सत्कार, यज्ञ-दान, भस्म लगाए लोग आदि हों, वहां मेरा निवास नहीं हो सकता। अत: आप मुझे किसी ऐसे स्थान पर ले चलिए जहां इन कार्यों के विपरीत कार्य होता हो।’
दु:सह मुनि उसे निर्जन वन में ले गए। वन में दु:सह मुनि को मार्कण्डेय ऋषि मिले। दु:सह मुनि ने मार्कण्डेय ऋषि से पूछा कि ‘इस भार्या के साथ मैं कहां रहूं और कहां न रहूं?’

दरिद्रा के प्रवेश करने के स्थान :-

मार्कण्डेय ऋषि ने दु:सह मुनि से कहा–* जिसके यहां शिवलिंग का पूजन न होता हो तथा जिसके यहां जप आदि न होते हों बल्कि रुद्रभक्ति की निन्दा होती हो, वहीं पर तुम निर्भय होकर घुस जाना।

जहां * पति-पत्नी परस्पर झगड़ा करते हों, * घर में रात्रि के समय लोग झगड़ा करते हों, * जो लोग बच्चों को न देकर स्वयं भोज्य पदार्थ खा लेते हों, * जो स्नान नहीं करते, दांत-मुख साफ नहीं करते, * गंदे कपड़े पहनते, संध्याकाल में सोते व खाते हों, * जुआ खेलते हों, * ब्राह्मण के धन का हरण करते हों, * परायी स्त्री से सम्बन्ध रखते हों, * हाथ-पैर न धोते हों, उस घर में तुम दोनों घुस जाओ।

दरिद्रा के प्रवेश न करने के स्थान :-

मार्कण्डेयजी ने दु:सह मुनि को  कहा–* जहां नारायण व रुद्र के भक्त हों, * भस्म लगाने वाले लोग हों, * भगवान का कीर्तन होता हो, * घर में भगवान की मूर्ति व गाये हों उस घर में तुम दोनों मत घुसना। * जो लोग नित्य वेदाभ्यास में संलग्न हों, * नित्यकर्म में तत्पर हों तथा वासुदेव की पूजा में रत हों, उन्हें दूर से ही त्याग देना।

तथा * जो लोग वैदिकों, ब्राह्मणों, गौओं, गुरुओं, अतिथियों तथा रुद्रभक्तों की नित्य पूजा करते हैं, उनके पास मत जाना।

यह कहकर मार्कण्डेय ऋषि चले गए। तब दु:सह मुनि ने दरिद्रा को एक पीपल के मूल में बिठाकर कहा कि मैं तुम्हारे लिए रसातल जाकर उपयुक्त आवास की खोज करता हूँ। दरिद्रा ने कहा–’तब तक मैं खाऊंगी क्या?’ मुनि ने कहा–’तुम्हें प्रवेश के स्थान तो मालूम हैं, वहां घुसकर खा-पी लेना। लेकिन जो स्त्री तुम्हारी पुष्प व धूप से पूजा करती हो, उसके घर में मत घुसना।’

यह कहकर मुनि बिल मार्ग से रसातल में चले गए। लेकिन बहुत खोजने पर भी उन्हें कोई स्थान नहीं मिला। कई दिनों तक पीपल के मूल में बैठी रहने से भूख-प्यास से व्याकुल होकर दरिद्रा रोने लगीं। उनके रुदन से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में हाहाकार मच गया। उनके रोने की आवाज को जब उनकी छोटी बहन लक्ष्मीजी ने सुना तो वे भगवान विष्णु के साथ उनसे मिलने आईं। दरिद्रा ने भगवान विष्णु से कहा–’मेरे पति रसातल में चले गए है, मैं अनाथ हो गई हूँ, मेरी जीविका का प्रबन्ध कर दीजिए।’

भगवान विष्णु ने कहा–’हे दरिद्रे! जो माता पार्वती, शंकरजी व मेरे भक्तों की निन्दा करते हैं; शंकरजी की निन्दा कर मेरी पूजा करते हैं, उनके धन पर तुम्हारा अधिकार है। तुम सदा पीपल (अश्वत्थ) वृक्ष के मूल में निवास करो। तुमसे मिलने के लिए मैं लक्ष्मी के साथ प्रत्येक शनिवार को यहां आऊंगा और उस दिन जो अश्वत्थ वृक्ष का पूजन करेगा, मैं उसके घर लक्ष्मी के साथ निवास करुंगा।’ उस दिन से दरिद्रादेवी पीपल के नीचे निवास करने लगीं।

देवताओं द्वारा दरिद्रा को दिए गए निवासयोग्य स्थान :-

पद्मपुराण के उत्तरखण्ड में बताया गया है–* जिसके घर में सदा कलह होता हो, * जो झूठ और कड़वे वचन बोलते हैं, * जो मलिन बुद्धि वाले हैं व * संध्या के समय सोते व भोजन करते हैं, * बहुत भोजन करते हैं, * मद्यपान में लगे रहते हैं, * बिना पैर धोये जो आचमन या भोजन करते हैं, * बालू, नमक या कोयले से दांत साफ करते हैं, * जिनके घर में कपाल, हड्डी, केश व भूसी की आग जलती हो, * जो छत्राक (कुकुरमुत्ता) तथा सड़ा हुआ बेल खाते हैं, * जहां गुरु, देवता, पितर और अतिथियों का पूजन तथा यज्ञदान न होता हो, * ब्राह्मण, सज्जन व वृद्धों की पूजा न होती हो, * जहां द्यूतक्रीडा होती हो, * जो दूसरों के धन व स्त्री का अपहरण करते हों, वहां अशुभ दरिद्रे तुम सदा निवास करना।
|| ओम नमः शिवाय ||

नरक चतुर्दशी

नरक चतुर्दशी (छोटी दिवाली) 29 October 2016, शनिवार
तिथि : चतुर्दशी
नक्षत्र : चित्रा (स्वामी त्वष्टा)
योग : विष्कम्भ योग 21:11 तक
सूर्य राशि : तुला
चन्द्र राशि : कन्या 19:36 तक
राहुकाल : 09:19 से 10:41
अभ्यंग स्नान मुहूर्त: सुबह 05:04 से 06:34 के बीच

आज के दिन भगवान श्री कृष्ण ने नरकासुर का वध किया था। कुछ लोग आज के दिन अकाल मृत्यु के भय से मुक्त होने के लिए यमराज का भी पूजन करते हैं।

अभ्यंग स्नान तथा लौकी/अपामार्ग का प्रोक्षण

एक पौराणिक कथा के अनुसार नरक चतुर्दशी के दिन भगवान श्री कृष्ण ने नरकासुर का वध किया था तथा मरते समय नरकासुर ने भगवान श्रीकृष्ण से वर मांगा, कि ‘आजके दिन मंगल स्नान करने वाला नरक की यातनाओंसे बच जाए ।' तदनुसार भगवान श्रीकृष्णने उसे वर दिया । इसलिए इस दिन सूर्योदयसे पूर्व अभ्यंगस्नान करनेकी प्रथा है ।

प्रात: सूर्योदय से पूर्व उठकर शौचादि से निवृत्त हो तेल मालिश, उबटन करें। तिल के तेल में बेसन मिलाकर शरीर पर मलें। उसके बाद एक लौकी (घीया) तथा अपामार्ग को अपने सिर से सात बार घुमायें। घुमाते समय निम्न श्लोक संस्कृत या हिंदी में ही बोलें “सितालोष्ठसमायुक्तं सकण्टकलदलान्वितं । हर पापमपामार्ग भ्राम्यमाणः पुनः पुनः ॥” ‘हे तुंबी , हे अपामार्ग तुम बारबार फिराए ( घुमाए ) जाते हुए , मेरे पापों को दूर करो और मेरी कुबुद्धि का नाश कर दो ।’ उसके बाद जल से स्नान करें। जल में केसर, गंगाजल मिला लें। इसको अभ्यंग स्नान कहते हैं. “तैले लक्ष्मी: जले गंगा दीपावल्या चतुर्दशीम्। ” रूप चतुर्दशी के दिन तेल में लक्ष्मी का वास और जल में गंगा की पवित्रता होती है। स्नान के उपरान्त देवताओं का पूजन तथा दीपदान करें। लौकी/अपामार्ग को किसी पेड के नीचे रख आएं (अगर संभव हो तो दक्षिण दिशा में)। अभ्यंग स्नान के पश्चात पत्नी सहित विष्णु मंदिर और कृष्ण मंदिर में भगवान का दर्शन करना अत्यंत पुण्यदायक कहा गया है। इससे व्यक्ति के समस्त पाप कटते है, रूप सौन्दर्य की प्राप्ति होती है (इसलिए इसको रूप चतुर्दशी कहते हैं), शरीर निरोगी होता है तथा नरक का भय दूर होता है।

अभ्यंग स्नान के बाद सबसे पहले लक्ष्मी विष्णु की प्रतिमा अथवा फोटो को कमलगट्टे की माला और पीले पुष्प अर्पित करें, धन लाभ होगा।

हनुमान जन्मोत्सव

आज के दिन कार्तिक (अमान्त आश्विन) कृष्ण चतुर्दशी भौमवार की महानिशा में, स्वाति नक्षत्र, मेष लग्न में अंजनादेवी के गर्भ से रामभक्त हनुमानजी का जन्म हुआ था ।

अर्थात् अञ्जनादेवी के गर्भ से हनुमान जी का जन्म हुआ था।

हालांकि चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को हनुमान जयंती सर्वविदित है। हनूमान भक्त को इस दिन उपवास करना चाहिए । दोपहर में हनूमान् जी पर सिन्दूर में सुगन्धित तेल या घी मिलाकर उसका लेप (चोला) करना चाहिए (कहते है की इसी दिन माता सीता ने हनुमान जी को सिंदूर प्रदान किया था तभी से हनुमान जी पर सिंदूर अर्पित किया जाने लगा है)। तदुपरान्त चॉंदी के वर्क लगाने चाहिए । चोला चढ़ाने के उपरान्त हनूमान् जी का षोडशोपचार पूजन करना चाहिए । हनुमान चालीसा, राम रक्षा स्तोत्र, सुंदर कांड का पाठ करें।

नरक चतुर्दशी तथा दीपदान

इस दिन देवी लक्ष्मी, भगवान गणेश का पूजन करके 13 दीपकों के मध्य चार बातियों वाला एक तेल का दीपक रखकर उसकी चारों बातियों को प्रज्वलित करना चाहिए एवं दीपमालिका का पूजन करके उन दीपों को घर में प्रत्येक स्थान पर रखें एवं चार बातियों वाला दीपक रातभर जलता रहे ऐसा प्रयास करें।
365 बत्ती का दीपक अपने घर के दरवाजे पर या मंदिर मैं जलावें.
नरक चतुर्दशी को संध्या के समय घर की पश्चिमी दिशा में खुले स्थान पर अथवा छत के पश्चिम में 14 दीपक पूर्वजों के नाम से जलाएं। उनके आशीर्वाद से समृद्धि प्राप्त होगी।

Astro Shaliini
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Thursday, 27 October 2016

Kartik maas

कार्तिक मास में यह बातें करनी चाहिए (बहुत लाभ होता है) -
तुलसीजी की मिट्टी का तिलक, तुलसी के पौधे को सुबह एक- आधा ग्लास पानी देना एक मासा सुवर्ण दान का फल देता है , तुलसी का वन अथवा तुलसी के पौधे लगाना हीतकारी है |
गंगाजी का स्नान, अथवा तो प्रभात का स्नान (सूर्योदय के पूर्व) | ब्रह्मचर्य का पालन, चटोरापन न हो| धरती पर शयन...
उड़द , मसूर आदि भारी चीज़ो का त्याग करना चाहिए, तिल का दान करना चाहिए..कार्तिक मास में सत्संग, साधु संतों का जीवन चरित्र का अध्ययन, मार्गदर्शन का अनुसरण करना चाहिए…मोक्ष प्राप्ति का इरादा बना देना चाहिए…
कार्तिक मास में अपने गुरुदेव का सुमिरन करते हुए जो "ॐ नमो नारायणाय " का जप करता है,उसे बहुत पुण्य होता है |

चातुर्मास में पुरुष सूक्त का पाठ

चातुर्मास में पुरुष सूक्त का पाठ

चातुर्मास में जो भगवन विष्णु के समक्ष पुरुष सूक्त का पाठ करता है उसकी बुद्धि बढ़ेगी | कैसा भी दबू विद्यार्थी हो बुद्धिमान बनेगा |

ॐ श्री गुरुभ्यो नमः हरी ॐ सहस्त्रशीर्षा पुरुष:सहस्राक्ष:सहस्रपात् | स भूमि सर्वत: स्पृत्वाSत्यतिष्ठद्द्शाङ्गुलम् ||१|| जो सहस्रों सिरवाले, सहस्रों नेत्रवाले और सहस्रों चरणवाले विराट पुरुष हैं, वे सारे ब्रह्मांड को आवृत करके भी दस अंगुल शेष रहते हैं ||१|| पुरुषSएवेदं सर्व यद्भूतं यच्च भाव्यम् | उतामृतत्यस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ||२|| जो सृष्टि बन चुकी, जो बननेवाली है, यह सब विराट पुरुष ही हैं | इस अमर जीव-जगत के भी वे ही स्वामी हैं और जो अन्न द्वारा वृद्धि प्राप्त करते हैं, उनके भी वे ही स्वामी हैं ||२|| एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः | पादोSस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ||३|| विराट पुरुष की महत्ता अति विस्तृत है | ç 1;स श्रेष्ठ पुरुष के एक चरण में सभी प्राणी हैं और तीन भाग अनंत अंतरिक्ष में स्थित हैं ||३|| त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुष:पादोSस्येहाभवत्पुनः | ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशनेSअभि ||४|| चार भागोंवाले विराट पुरुष के एक भाग में यह सारा संसार, जड़ और चेतन विविध रूपों में समाहित है | इसके तीन भाग अनंत अंतरिक्षमें समाये हुए हैं ||४|| ततो विराडजायत विराजोSअधि पूरुषः | स जातोSअत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुर: ||५|| उस विराट पुरुष से यह ब्रह्मांड उत्पन्न हुआ | उस विराट से समष्टि जीव उत्पन्न हुए | वही देहधारी रूप में सबसे श्रेष्ठ हुआ, जिसने सबसे पहले पृथ्वी को, फिर शरीरधारियों को उत्पन्न किया ||५|| तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत: सम्भृतं पृषदाज्यम् | पशूंस्न्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ||६|| उस सर्वश्रेष्ठ विराट प्रकृति यज्ञ से दधियुक्त घृत प्राप्त हुआ(जिससे विराट पुरुष की पूजा होती है) | वायुदेव से संबंधित पशु हरिण, गौ, अश्वादि की उत्पत्ति उस विराट पुरुष के द्वारा ही हुई ||६|| तस्माद्यज्ञात् सर्वहुतSऋचः सामानि जज्ञिरे | छन्दाँसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ||७|| उस विराट यज्ञ पुरुष से ऋग्वेद एवं सामवेद का प्रकटीकरण हुआ | उसी से यजुर्वेद एवं अथर्ववेद का प्रादुर्भाव हुआ अर्थात् वेद की ऋचाओं का प्रकटीकरण हुआ ||७|| तस्मादश्वाSअजायन्त ये के चोभयादतः | गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाताSअजावयः ||८|| उस विराट यज्ञ पुरुष से दोनों तरफ दाँतवाले घोड़े हुए और उसी विराट पुरुष से गौए, बकरिया और भेड़s आदि पशु भी उत्पन्न हुए ||८|| तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन् पूरुषं जातमग्रत:| तेन देवाSअयजन्त साध्याSऋषयश्च ये ||९|| मंत्रद्रष्टा ऋषियों एवं योगाभ्यासियों ने सर्वप्रथम प्रकट हुए पूजनीय विराट पुरुष को यज्ञ (सृष्टि के पूर्व विद्यमान महान ब्रह्मांड रूपयज्ञ अर्थात् सृष्टि यज्ञ) में अभिषिक्त करके उसी यज्ञरूप परम पुरुष से ही यज्ञ (आत्मयज्ञ ) का प्रादुर्भाव किया ||९|| यत्पुरुषं व्यदधु: कतिधा व्यकल्पयन् | मुखं किमस्यासीत् किं बाहू किमूरू पादाSउच्येते ||१०|| संकल्प द्वारा प्रकट हुए जिस विराट पुरुष का, ज्ञानीजन विविध प्रकार से वर्णन करते हैं, वे उसकी कितने प्रकार से कल्पना करते हैं ? उसका मुख क्या है ? भुजा, जाघें और पाँव कौन-से हैं ? शरीर-संरचना में वह पुरुष किस प्रकार पूर्ण बना ? ||१०|| ब्राह्मणोSस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत: | ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पद्भ्या शूद्रोSअजायत ||११|| विराट पुरुष का मुख ब्राह्मण अर्थात् ज्ञानी (विवेकवान) जन हुए | क्षत्रिय अर्थात पराक्रमी व्यक्ति, उसके शरीर में विद्यमान बाहुओं के समान हैं | वैश्य अर्थात् पोषणशक्ति-सम्पन्न व्यक्ति उसके जंघा एवं सेवाधर्मी व्यक्ति उसके पैर हुए ||११|| चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षो: सूर्यो अजायत | श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत ||१२|| विराट पुरुष परमात्मा के मन से चन्द्रमा, नेत्रों से सूर्य, कर्ण से वायु एवं प्राण तथा मुख से अग्नि का प्रकटीकरण हुआ ||१२|| नाभ्याSआसीदन्तरिक्ष शीर्ष्णो द्यौः समवर्त्तत | पद्भ्यां भूमिर्दिश: श्रोत्रात्तथा लोकांर्Sअकल्पयन् ||१३|| विराट पुरुष की नाभि से अंतरिक्ष, सिर से द्युलोक, पाँवों से भूमि तथा कानों से दिशाएँ प्रकट हुईं | इसी प्रकार (अनेकानेक) लोकों को कल्पित किया गया है (रचा गया है) ||१३|| यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत | वसन्तोSस्यासीदाज्यं ग्रीष्मSइध्म: शरद्धवि: ||१४|| जब देवों ने विराट पुरुष रूप को हवि मानकर यज्ञ का शुभारम्भ किया, तब घृत वसंत ऋतु, ईंधन(समिधा) ग्रीष्म ऋतु एवं हवि शरद ऋतु हुई ||१४|| सप्तास्यासन् परिधयस्त्रि: सप्त: समिध: कृता:| देवा यद्यज्ञं तन्वानाSअबध्नन् पुरुषं पशुम् ||१५|| देवों ने जिस यज्ञ का विस्तार किया, उसमें विराट पुरुष को ही पशु (हव्य) रूप की भावना से बाँधा (नियुक्त किया), उसमें यज्ञ की सात परिधियाँ (सात समुद्र) एवं इक्कीस (छंद) समिधाएँ हुईं ||१५|| यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् | ते ह नाकं महिमान: सचन्त यत्र पूर्वे साध्या: सन्ति देवा: ||१६|| आदिश्रेष्ठ धर्मपरायण देवों ने, यज्ञ से यज्ञरूप विराट सत्ता का यजन किया | यज्ञीय जीवन जीनेवाले धार्मिक महात्माजन पूर्वकाल के साध्य देवताओं के निवास, स्वर्गलोक को प्राप्त करते हैं ||१६|| ॐ शांति: ! शांति: !! शांति: !!!

Tuesday, 25 October 2016

एकादशी के दिन क्यों वर्जित है - चावल खाना

जानियें, एकादशी के दिन क्यों वर्जित है - चावल खाना __
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हमारे धर्म शास्त्रों के अनुसार एकादशी के दिन चावल खाना वर्जित है। ऐसा माना गया है कि इस दिन चावल खाने से प्राणी रेंगने वाले जीव की योनि में जन्म पाता है, किन्तु द्वादशी को चावल खाने से इस योनि से मुक्ति भी मिल जाती है।
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एकादशी की विशिष्टता बताते हुवें शास्त्रों में कहा गया है कि -
‘न विवेकसमो बन्धुर्नैकादश्या: परं व्रतं’
अर्थात् - विवेक के सामान कोई बंधु नहीं है और एकादशी से बढ़ कर कोई व्रत नहीं है।
पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां और एक मन, इन ग्यारहों को जो साध लेता वह प्राणी एकादशी के समान पवित्र और दिव्य हो जाता है।
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एकादशी विष्णु से उत्पन्न होने के कारण विष्णुस्वरुपा है। जहां चावल का संबंध जल से है, वहीं जल का संबंध चंद्रमा से है। पांचों ज्ञान इन्द्रियां और पांचों कर्म इन्द्रियों पर मन का ही अधिकार है। मन ही जीवात्मा का चित्त स्थिर-अस्थिर करता है।
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ज्योतिष-शास्त्र के अनुसार मन और श्वेत रंग का स्वामी भी चंद्रमा ही हैं, जो स्वयं जल, रस और भावना का कारक हैं, इसीलिए जलतत्त्व राशि के जातक भावना प्रधान होते हैं। इसलिए एकादशी के दिन शरीर में जल की मात्र जितनी कम रहेगी, व्रत पूर्ण करने में उतनी ही अधिक सात्विकता रहेगी। महाभारत काल में वेदों का विस्तार करने वाले भगवान व्यास ने पांडव पुत्र भीम को इसीलिए निर्जला एकादशी (वगैर जल पिए हुए) करने का सुझाव दिया था। आदिकाल में देवर्षि नारद ने एक हजार वर्ष तक एकादशी का निर्जल व्रत करके नारायण भक्ति प्राप्त की थी। चंद्रमा मन को अधिक चलायमान न कर पाएं, इसीलिए व्रती इस दिन चन्द्रमा के अधिपत्य वाली वास्तु चावल को खाने से परहेज करते हैं।

*  एकादशी के दिन चावल न खाने के सम्बन्ध में एक पौराणिक कथा भी है -
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एक बार माता शक्ति के क्रोध से भागते-भागते भयभीत महर्षि मेधा ने अपने योग बल से शरीर छोड़ दिया और उनकी मेधा पृथ्वी में समा गई। कालांतर वही मेधा जौ और चावल के रूप में उत्पन्न हुईं। ऐसा माना गया है कि यह घटना एकादशी को घटी थी। यह जौ और चावल महर्षि की ही मेधा शक्ति है, जो जीव हैं। इस दिन चावल खाना महर्षि मेधा के शरीर के छोटे-छोटे मांस के टुकड़े खाने जैसा माना गया है, इसीलिए इस दिन से जौ और चावल को जीवधारी माना गया है। आज भी जौ और चावल को उत्पन्न होने के लिए मिट्टी की आवश्यकता नहीं पड़ती। केवल जल का छींटा मारने से ही ये अंकुरित हो जाते हैं। इनको जीव रूप मानते हुए एकादशी को भोजन के रूप में ग्रहण करने से परहेज किया गया है, ताकि सात्विक रूप से विष्णुस्वरुप एकादशी का व्रत संपन्न हो सके।

इस प्रकार एकादशी-व्रत की पूर्णता, पवित्रता और सात्विकता की रक्षा के लिए एकादशी के दिन वर्जित है - चावल खाना

Sunday, 23 October 2016

दीवाली

दीपावली की रात इन 7 स्थानों पर दीपक लगाना न भूलें
Try it Once in life every powerful and easy , all this given in many books in our history.
1. यदि संभव हो तो रात के समय किसी श्मशान में दीपक लगाएं। पैसा प्राप्त करने के लिए यह एक चमत्कारी टोटका है।
2.धन प्राप्ति की कामना करने वाले व्यक्ति को दीपावली की रात मुख्य दरवाजे की चौखट के दोनों ओर दीपक अवश्य लगाना चाहिए।
3.घर के आंगन में भी दीपक लगाना चाहिए। ध्यान रखें यह दीपक बुझना नहीं चाहिए।
4हमारे घर के आसपास वाले चौराहे पर रात के समय दीपक लगाना चाहिए। ऐसा करने पर पैसों से जुड़ी समस्याएं समाप्त हो जाती हैं।
5.घर के पूजन स्थल में दीपक लगाएं, जो पूरी रात बुझना नहीं चाहिए। ऐसा करने पर महालक्ष्मी प्रसन्न होती हैं।
6.किसी बिल्व पत्र के पेड़ के नीचे दीपावली की शाम दीपक लगाएं। बिल्व पत्र भगवान शिव का प्रिय वृक्ष है। अत: यहां दीपक लगाने पर उनकी कृपा प्राप्त होती है।
7.पीपल के पेड़ के नीचे दीपावली की रात एक दीपक अवश्य लगाकर आएं। ऐसा करने पर आपकी धन से जुड़ी समस्याएं दूर हो जाएंगी।